भारतीय क्रिकेट के पहले नायक, महाराजा रणजीत सिंह की आज पुण्यतिथि है। इस खास मौके पर जानते हैं कि क्यों वह भारतीय क्रिकेट के पथ-प्रदर्शक बने और किस तरह से उनकी उपलब्धियों ने भारतीय क्रिकेट की नींव रखी।
इंग्लैंड की ओर से किया डेब्यू
महाराजा रणजीत सिंह को भारतीय क्रिकेट का जनक यूं ही नहीं कहा जाता। उनका क्रिकेट करियर 1889 में शुरू हुआ, जब वह 16 साल की उम्र में इंग्लैंड के ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज में पढ़ाई करने गए थे। मात्र 7 सालों में, 1896 में उन्होंने इंग्लैंड की नेशनल टीम में अपनी जगह बना ली और ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ इंटरनेशनल सीरीज खेले।
अंग्रेज नहीं चाहते थे इंग्लैंड के लिए खेलें रणजीत सिंह
हालांकि इंग्लिश टीम में उनकी एंट्री आसान नहीं थी। अंग्रेजों का कहना था कि रणजीत सिंह भारत से हैं, और भारत उस समय अंग्रेजों का गुलाम था। इसलिए उन्हें अंग्रेजों के साथ खेलना उचित नहीं था। लेकिन रणजीत की क्रिकेट प्रतिभा के आगे अंग्रेजों को झुकना पड़ा और उन्होंने उन्हें अपनी टीम में जगह दी।
बीमार होकर भी खेले, ठोके 175 रन
1897 में ऑस्ट्रेलिया दौरे के दौरान एक सिडनी टेस्ट मैच से पहले रणजीत सिंह बीमार पड़ गए। बावजूद इसके, उन्होंने टीम की जरूरत को समझते हुए प्लेइंग XI में अपनी जगह बनाई। और नंबर 7 पर बैटिंग करते हुए उन्होंने 175 रन की शानदार पारी खेली, जिससे उन्होंने अपनी मानसिक दृढ़ता और खेल के प्रति समर्पण को साबित किया।
भारत में क्रिकेट लाने का श्रेय उन्हें
1904 में रणजीत सिंह भारत लौट आए, लेकिन क्रिकेट के प्रति उनका जुनून कम नहीं हुआ। वह भारत में कई सालों तक क्रिकेट से जुड़े रहे और यहां तक कि 48 साल की उम्र में भी फर्स्ट क्लास क्रिकेट खेलने के लिए इच्छुक थे। उनके क्रिकेट में योगदान के कारण डाक विभाग ने उनके नाम पर 30 पैसे का टिकट भी जारी किया था।
1907 में बने जाम नगर के महाराज
1906 में ब्रिटिश सेना से उन्हें कर्नल की उपाधि मिली और अगले साल, 1907 में उन्हें जाम नगर का महाराजा बना दिया गया। वे श्री श्री रणजीत सिंह जी विभाजी II के नाम से प्रसिद्ध हुए। 2 अप्रैल 1933 को उनका जामनगर में निधन हो गया।
महाराजा रणजीत सिंह की क्रिकेट में दी गई महानता को याद करते हुए, उनका नाम भारतीय क्रिकेट के इतिहास में हमेशा स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा, और रणजी ट्रॉफी के रूप में उनकी विरासत आज भी जीवित है।